भारत में ट्यूबरक्लोसिस का ईतिहास :
क्षय रोग प्राचीनकाल से ही मानवों को प्रभावित करते आ रहे है मानवों में इसकी मौजूदगी के साक्ष्य 2400 - 3000 ई.पू. मिश्र में जमीन के निचे दबे मानवों ( ममी )की रीढ़ की हड्डियों में मिले। इसके अनेक तथ्य है कुछ वैज्ञानिको का यह भी मानना है की 18000 साल पहले जंगली भैसों में टीबी की बीमारी थी जो धीरे-धीरे मनुष्यों में आ गई और कुछ का मानना है की दक्षिण अफ्रीका के जंगलों में रहने वाले लोगों में भी टीबी के साक्ष्य मिले। ग्रीक शब्दों में क्षय रोग को पीथीसिस और खूनी खांसी भी कहते थे। ट्यूबरक्लोसिस के अविष्कार से पूर्व टीबी रोग को पिशाच की बीमारी जाता था क्योकि अगर इस बीमारी से घर के किसी सदस्य की मौत हो जाती है तो घर के अन्य सदस्यों को भी टीबी के संक्रमण के कारण तेज खांसी और त्वचा लाल हो जाती है और वे यह सोचते है की मरने वाले की आत्मा उसे भी साथ लेजाना चाहती है।
भारत में टीबी रोग के रोकथाम के प्रयास :
सन 1962 से विभिन्न जिलों में राष्ट्रीय क्षय
नियंत्रण कार्यक्रम के अंतर्गत सामान्य स्वस्थ्य सेवा के प्राथमिक स्वास्थ्य
सेवाओं के माध्यम से क्षय रोग हेतु चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध कराई गई। इसके परिणाम
उत्साजनक नहीं निकले। सन 1992 में क्षय नियत्रण कार्यक्रम की गहन समीक्षा
भारत सरकार द्वारा की गयी इसके परिणामस्वरूप 1993 में पायलट टेस्टिंग के बाद 1997 से राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न पक्षों में डॉट्स
पद्धति आधारित पुनरीक्षित राष्ट्रीय क्षय नियत्रण कार्यक्रम (आर एन टी सी पी ) लागु की गयी।
उक्त पद्धति में आने वाली परेशानियों एवं
डॉक्टर्स की ऑब्जर्वेशन के पश्चात वर्ष 2017 -18 में डेली डॉट्स की शुरुआत की
गई। जिसमे भारत शासन द्वारा अप्रैल 2018 से निक्षय पंजीकृत मरीजों को
औसत 500
रू
प्रतिमाह DBT के माध्यम से ईलाज जारी रहने
तक उनके खाते में जमा करने हेतु Nikshay poshan yojana भारत शासन द्वारा प्रारंभ की गई।

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